उत्तराखंड

आपको पता है, आपदा के आखिर कितने दिनों बाद सामान्‍य जीवन जी पाते हैं प्रभावित लोग– News18 Hindi

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नई दिल्‍ली. उत्‍तराखंड के चमोली जिले में ग्‍लेशियर फटने (Chamoli Glacier Burst) से आई बाढ़ (Flood) में सैकडों जानें चली गई हैं. वहीं अभी भी तपोवन टनल (Tapovan Tunnel) में लापता लोगों को खोजने का काम चल रहा है. इतना ही नहीं इस आपदा में हजारों घरों को नुकसान पहुंचा है और जोशीमठ (Joshimath), मलारी (Malari), रेणी (Raini) सहित दर्जनों गांव प्रभावित हुए हैं. अपनों को खोने के साथ ही घर-मकान ढह जाने से लोग आसरा ढूंढ रहे हैं. केंद्र सरकार और राज्‍य सरकार की ओर से मदद की घोषणा हो चुकी है हालांकि उसे पहुंचने में कितना समय लगता है यह तो वक्‍त ही बताएगा. लेकिन एक सबसे बड़ा सवाल सबके जेहन में आता है कि आखिर आपदा में सब कुछ खो देने वाले ये लोग कब तक सामान्‍य जीवन में प्रवेश कर पाते हैं.

2013 में केदारनाथ आपदा (2013 Kedarnath Disaster) के घाव अभी भी नहीं भरे हैं. पर्यावरणविद और आपदा प्रभावित क्षेत्रों में काम कर चुके विशेषज्ञ लोगों का कहना है कि सामान्‍य  जीवन जीने में आपदा प्रभावित लोगों को भारी परेशाानियों का सामना करना पड़ता है. जोशीमठ हादसे के बाद भी यही चिंता है कि वहां के स्‍थानीय लोग कब तक इस विपत्ति से उबर पाएंगे.

केदारनाथ के लोग ही नहीं संभले, जोशीमठ के कब संभलेंगे

उत्‍तराखंड (Uttarakhand) के केदारनाथ आपदा के दौरान 40 दिन तक आपदा स्‍थल पर रहकर हैवॉक इन हेवेन किताब लिखने वाले वरिष्‍ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल बताते हैं कि आपदा के बाद का जीवन बहुत कठिन हो जाता है. इसे ऐसे समझिए, मान लीजिए बाढ़ (Flood) में आपका खुद का ही घर बह जाए, सारा सामान, दस्‍तावेज, खत्‍म हो जाएं. अब पहले वाले ढर्रे पर जीवन को लाने में आपको कितना समय लगेगा. इसमें अगर कोई जनहानि या मवेशी की मौत भी हुई है तो यह घाव जीवन भर नहीं भर सकता है. बिल्‍कुल यही हाल आपदा का शिकार बने लोगों का होता है.

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तपोवन टनल में फंसे लोगों को बचाने की कोशिश लगातार की जा रही है. (ANI)

सामान्‍य जीवन में एक व्‍यक्ति को अपना घर बसाने और उसे संभाले रखने में कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, सरकारी दस्‍तावेज तक पूरे नहीं बन पाते. ऐसे में अगर हर चीज की क्षति हो जाए और बसा-बसाया घर उजड़ जाए तो सोचिए कब तक चीजें सामान्‍य होंगी. जब भी कोई आपदा आती है तो 15 दिन तक सभी याद रखते हैं, उसके बाद सरकारें उस जगह से चली जाती हैं, बाहर के लोग भूल जाते हैं लेकिन आपदा में प्रभावित लोग फिर जीरो से गिनती शुरू करते हैं. इसीलिए हर बार आपदा के दौरान सरकारों से मांग की जाती है कि वे लोगों की हरसंभव मदद करें. वेद कहते हैं कि केदारनाथ आपदा को सात साल हो गए लेकिन वहां के लोग अभी भी नहीं संभल पाए हैं.

छुटभैये नेता और दलालों के चंगुल में फंस जाते हैं आपदा प्रभावित

वहीं उत्‍तराखंड ईको टास्‍क फोर्स के रिटायर्ड कमांडेंट ऑफिसर कर्नल हरिराज राणा कहते हैं कि प्राकृतिक आपदा में जनहानि और मालहानि दोनों ही होती हैं. इस आपदा में अगर कोई अपने घर का सदस्‍य खोता है तो उस उसकी भरपाई जीवनभर नहीं हो सकती लेकिन घर-मकान उजड़ने पर उसे दोबारा बसाने की प्रक्रिया जरूर शुरू होती है. हालांकि इसे भी एक लंबा समय लगता है. कोई भी सरकार, प्रशासन और एनजीओ या बाहरी एजेंसी की मदद उस आपदा प्रभावित क्षेत्र में एक महीने से ज्‍यादा नहीं होती. धीरे-धीरे सब वहां से पलायन कर लेते हैं.

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चमोली बाढ़ में 100 से ज्‍यादा लोगों की जान गई है. वहीं 2013 में आई केदारनाथ आपदा ने 4500 लोगों की जान ले ली थी. (फाइल फोटो)

वे कहते हैं  कि हमारी शुरू से ये मांग रही है कि आपदा प्रभाव‍ित क्षेत्र में एक नोडल एजेंसी बनाई जानी चाहिए जो लोगों के जीवन से संबंधित सामान्‍य कामों को देखे. यह एजेंसी उस क्षेत्र में नगर निगम, सरकारी कागजात, सरकारी मदद, सरकारी की ओर से दिए जाने वाले आवास, प्रभावितों को सभी प्रकार की मदद के लिए ही काम करे. जब तक सभी लोगों तक राहत न पहुंच जाए तब तक काम करे. उसके बाद उसे सरकार अपने पास ले ले. हरिराज कहते हैं कि पर ऐसा होता नहीं है. सरकारें इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाती हैं जिसका फायदा छुटभैये नेता और उस क्षेत्र में पहुंचे दलाल लेते हैं और प्रभावितों को और भी परेशान करते हैं.

समाज और सरकार मिलकर काम करें तो एक साल कम नहीं

पर्यावरणविद रवि चोपड़ा कहते हैं  कि आपदा जितनी बड़ी होती है जनजीवन सामान्‍य होने में उतने ज्‍यादा दिन लगते हैं. हालांकि हाल ही में चमोली में हुआ हादसा बहुत ज्‍यादा बड़ा नहीं था. इसकी तुलना 2013 में केदारनाथ आपदा या 1991 के भूकंप (Earthquake) से नहीं की जा सकती है. हालांकि फिर भी कोई भी आपदा आती है तो आमतौर पर सरकार को जमीन पर अपना तंत्र बिठाने के लिए दो से तीन हफ्ते लग जाते हैं. इसे ऐसे समझिए कि कोई भी आपदा आती है तो सबसे पहले स्‍थानीय समाज वहां पहुंचता है. वह घायलों और मृतकों को निकालकर रेस्‍क्‍यू ऑपरेशन (Rescue Operation) स्‍थानीय लोग शुरू करते हैं. तीन से सात दिन में यह काम पूरा होता है. इसके बाद इन लोगों को खाना-पिलाना, सुरक्षित जगहों पर ठहराना, ये सभी काम स्‍थानीय लोग और उनके साथ मिलकर एनजीओ आदि करते हैं. पहले हफ्ते के अंदर ही बाहर की एजेंसीज वहां पहुंचना शुरू कर देती हैं और सिस्‍टम लगाती हैं.

2013 में केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी का गठन किया था. इस आपदा में 4500 लोगों की जान गई थी.

2013 में केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी का गठन किया था. इस आपदा में 4500 लोगों की जान गई थी.

वे कहते हैं कि मेरी अपनी राय है कि अगर सरकार और समाज मिलकर काम करें तो कितना भी बड़ा हादसा हो तो एक साल के अंदर प्रभावित लोगों को सुरक्षित घर मिल जाने चाहिए और जीवन पूरी तरह सामान्‍य होकर पटरी पर आ जाना चाहिए. जहां तक चमोली और जोशीमठ हादसे की बात करें तो यहां गांवों में लोग बह गए और जानवर बह गए हैं. ऐसे में लोगों को मवेशी खरीदने होंगे, घर और व्‍यवस्‍थाएं बनानी होंगी तो जितनी जल्‍दी यहां सरकारी मदद पहुंचेगी जैसे कि उत्‍तराखंड और केंद्र सरकार ने घोषणा की है, उतनी ही जल्‍दी यहां का जीवन सामान्‍य हो पाएगा. इस मदद में ढील नहीं होनी चाहिए.



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