उत्तराखंड

CM त्र‍िवेंद्र रावत अगर हटे तो नहीं होगी कोई हैरानी, जब से उत्‍तराखंड बना तब से हर मुख्‍यमंत्री की है यही कहानी, मगर…

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 उत्तराखंड के इतिहास में यह पहली बार नहीं है जब सरकार का चेहरा बदलने की बात हो रही है.

उत्तराखंड के इतिहास में यह पहली बार नहीं है जब सरकार का चेहरा बदलने की बात हो रही है.

Uttarakhand political crisis: उत्तराखंड के इतिहास में यह पहली बार नहीं है जब सरकार का चेहरा बदलने की बात हो रही है. 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर पहाड़ी राज्य उत्तरांचल बना था तब से चाहे बीजेपी की सरकार रही हो या कांग्रेस की, यहां एनडी त‍िवारी को छोड़कर कोई भी सीएम अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है.

यह बड़ा अजीब इत्तेफाक है साल 2017 में जिस सरकार को उत्तराखंड के इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें मिली यानी कि 70 में से 57 वह सरकार भी राजनीतिक अस्थिरता की ओर बढ़ती दिख रही है. दरअसल उत्तराखंड के इतिहास में यह पहली बार नहीं है जब सरकार का चेहरा बदलने की बात हो रही है. 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर पहाड़ी राज्य उत्तरांचल बना था. इस सरकार के पहले मुखिया बने नित्यानंद स्वामी. शपथ ग्रहण के दिन से ही स्वामी सरकार पर अस्थिरता के बादल मंडराने लगे थे. मंच पर खूब नारेबाजी हुई और हल्ले गुल्ले के बीच गठित हुई सरकार चंद महीने भी पूरे नहीं कर पाई कि चुनाव आते-आते बीजेपी ने पार्टी के सीनियर नेता भगत सिंह कोश्यारी को प्रदेश की कमान सौंप दी गई.

जब एनडी त‍िवारी की सरकार बदलने के ल‍िए भी व‍िधायकों ने लगाए थे द‍िल्‍ली के चक्‍कर
2002 में कोश्यारी के नेतृत्व में चुनाव हुए और बीजेपी चुनाव हार गई. जीत कर आई कांग्रेस की सरकार के मुखिया बने एनडी तिवारी. कांग्रेस सरकार में पार्टी अध्यक्ष हरीश रावत ने कांग्रेस को जिताने में खासी मेहनत की थी, लेकिन जब कुर्सी तिवारी को गई तो कांग्रेस में भी सत्ता संघर्ष शुरू हो गया. हालांकि एनडी तिवारी सरकार राज्य की पहली सरकार थी, जिसने अपने कार्यकाल के 5 साल पूरे किए लेकिन इन 5 सालों में ऐसे कई मौके आए जब विधायक दिल्ली की ओर भागे. सरकार बदलने की बात हुई और खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री तिवारी ने मुख्यमंत्री नहीं रहने की इच्छा जताई.

खंडूरी की राह भी नहीं थी आसान2007 विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी की सरकार आई और पार्टी के मुखिया बने मेजर जनरल (रिटायर्ड) बीसी खंडूरी लेकिन खंडूरी की राह भी आसान नहीं रही। 2009 के लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद खंडूरी को जाना पड़ा और मुख्यमंत्री के तौर पर रमेश पोखरियाल निशंक की ताजपोशी हुई। इससे पहले कि निशंक अपना कार्यकाल पूरा कर पाते पार्टी में एक बार फिर खंडूरी को गद्दी सौंप दी. उनकी अगुवाई में 2012 के विधानसभा चुनाव हुए और खंडूरी खुद अपनी सीट हार गए. पार्टी के नेताओं का कहना है कि खंडूरी की हार उनकी हार नहीं थी बल्कि पार्टी के कुछ लोगों ने उनको मिलजुल को चुनाव हारवाया.

विजय बहुगुणा भी बमुश्किल डेढ़ साल अपना कार्यकाल पूरा कर पाए
बहरहाल बीजेपी की सरकार चली गई और कांग्रेस जीती और सत्ता संघर्ष के बीच विजय बहुगुणा जो वक्त विधायक भी नहीं थे, वह मुख्यमंत्री बनाए गए. बहुगुणा बमुश्किल डेढ़ साल भी अपना कार्यकाल पूरा कर पाए और 2013 में केदारनाथ की भीषण आपदा और इसके बाद सरकार की जो देशभर में फजीहत हुई उसका संज्ञान लेते हुए कांग्रेस आलाकमान ने तब बहुगुणा की विदाई कर दी.

हरीश रावत की सरकार भी पूरा नहीं कर सकी अपना कार्यकाल
बहुगुणा की जगह उनके धुर विरोधी हरीश रावत 2014 में मुख्यमंत्री बनाए गए लेकिन रावत अपना कार्यकाल पूरा कर पाते. उससे पहले ही उनकी पार्टी में भगदड़ मच गई और एक बड़ा धड़ा विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत और दूसरे नेताओं के साथ 2016 में बीजेपी में शामिल हो गया और इस तरीके से 2017 में जो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस में बुरी तरह से हार गई. लेकिन दिलचस्प बात यह है जब देश भर में मोदी लहर चल रही थी तो उसका असर उत्तराखंड में भी चला.

2017 में बीजेपी को मिली सबसे बड़ी जीत
2017 के चुनाव में उत्तराखंड के आज तक के संसदीय इतिहास में सबसे बड़ी जीत बीजेपी को मिली। 70 विधानसभा सीटों में 57 सीटें बीजेपी की झोली में आ गई. इतने बड़े मैंडेट के साथ सत्ता में आई बीजेपी के मुखिया बने त्रिवेंद्र सिंह रावत. बीजेपी सत्ता में तो आ गई लेकिन पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष जारी रहा अब जो ताजा घटनाक्रम उत्तराखंड में बना हुआ है वह कहीं ना कहीं इस ओर इशारा कर रहा है कि छोटे प्रदेश में पिछले 20 सालों में राजनीतिक अस्थिरता यहां की नियति बन गई है.






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