चमोली बाढ़: पर्यावरणविद रवि चोपड़ा का खुलासा, 2013 केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट को किया था आगाह– News18 Hindi
[ad_1]
इतना ही नहीं डॉ. रवि चोपड़ा ने न्यूज 18 से बातचीत में चमोली हादसे (Chamoli flood) को लेकर भी अहम जानकारियां दी हैं. साथ ही कहा है कि 2013 की घटना के बाद अगर सुप्रीम कोर्ट में दी गई रिपोर्ट पर काम हुआ होता और उत्तराखंड सरकार ने कदम उठाए होते तो चमोली, जोशीमठ (Joshi Math), तपोवन (Tapovan) में हुए इस हादसे से बचा जा सकता था.
2013 उत्तराखंड जल प्रलय के बाद ही जता दी थी अनहोनी की आशंका
रवि चोपड़ा बताते हैं कि केदारनाथ आपदा (Kedarnath Disaster) के बाद कमेटी गठित करके सुप्रीम कोर्ट ने तीन सवालों के जवाब मांगे थे. पहला सवाल था क्या बांधों के निर्माण के कारण उत्तराखंड राज्य में नुकसान हुआ है ? तब शोध के बाद कमेटी की ये राय थी कि हां, बांधों से कई पर्यावरणीय नुकसान हुए हैं. इस दौरान कमेटी ने सबूतों के साथ ब्यौरा दिया. दूसरा सवाल था कि क्या उत्तराखंड के बांधों की वजह से बाढ़ आई है, उसका नुकसान बड़ा है या नहीं ? हमने चार बांधों का अध्यययन करके यह सिद्ध किया कि बांधों की वजह से नुकसान बढ़ा है. बांध न होते तो इतनी क्षति न होती. ये चार बांध थे मंदाकिनी नदी पर बना फाटा ब्यूंग, मंदाकिनी नदी पर ही बना सिंघोली भटवारी, अलकनंदा पर विष्णुप्रयाग प्रोजेक्ट और अलकनंदा पर ही हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट. तीसरा सवाल यह था कि वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ने 2012 में संस्तुति की थी कि 24 बांध को अलकनंदा और भागीरथी बेसिन में रद्द कर दिया जाए. कोर्ट ने हमसे कहा कि आप इसका अध्ययन करके बताएं कि क्या करना चाहिए. तब हमने अध्ययन किया जो हमारी संस्तुति थी कि 23 बांध तो पूरी तरह रद्द कर देने चाहिए जबकि एक बांध के डिजाइन में भारी संशोधन की जरूरत है.
2013 में केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी का गठन किया था. इस आपदा में 4500 लोगों की जान गई थी.
इनके अलावा हमारे शोध से जो नई और महत्वपूर्ण बात निकली वह यह थी कि उच्च हिमालयी क्षेत्र में जहां पर घाटियों का तल 2000 मीटर से नीचे है. जैसे जोशीमठ के आगे वाला हिस्सा, उन घाटियों में जिन्हें हम पैरा ग्लेशियर जोन (Para Glacier Zone) कहते हैं. ये वे इलाके हैं जहां पर ग्लेशियर पीछे हटे थे और हटते समय भारी मलबा, चट्टानें, बड़े-बड़े पत्थर छोड़ गए थे. जब भी इन इलाकों में भारी वर्षा होती है, बाढ़ आती है तो वो छोटी-छोटी नदियां जैसे ये रिषीगंगा थी, सब मलबे को उठाती हैं और नीचे चलती हैं. बाढ़ के रास्ते में अगर कोई रुकावट आती है तो वे उस रुकावट को नष्ट कर देती हैं.
जैसे ही ये आगे बढ़ती हैं तो और शक्तिशाली हो जाती हैं और रुकावटों को तोड़ती जाती हैं. ये तब तक चलता है जब तक कि नदी का तल घट न जाए. यही चीज आपने चमोली में हाल ही में हुए हादसे में देखी है. ये बांध नहीं बनने चाहिए थे.
ग्लेशियर फटा है या नहीं, क्या है सच्चाई
डॉ. चोपड़ा कहते हैं कि इसी सवाल पर काम चल रहा है. यह कहना कि ग्लेशियर फटा (Glacier Burst) है या बादल फटा है, यह कहना इतना आसान नहीं है. इसको लेकर शोध चल रहा है. हालांकि अभी तक जो जानकारी आई है उसके अनुसार या तो ग्लेशियर का कोई हिस्सा टूटा है ऐसी संभावना दिखाई दे रही है. हालांकि ग्लेशियर लेक की दीवार नहीं टूटी है. या फिर पिछले एक हफ्ते में यहां बर्फ पड़ी थी और बर्फ पिघली क्योंकि 5 और 6 को आसमान साफ हो गया था. ऐसे इलाकों में धूप भी तेज पड़ती है. ऐसे में जैसे ही स्नो मेल्टिंग हुई और पानी नीचे खिसकना शुरू करता है तो वह एक एवलांच का रूप लेता है. ऐसे में दो संभावनाएं हैं.
सरकारों से नहीं आशा, 2013 की भयंकर आपदा के बाद भी नहीं उठाए कदम
रवि चोपड़ा का कहना है कि देखिए 2013 की आपदा तो इस आपदा से काफी भयंकर थी. जनहानि और मालहानि कई गुना ज्यादा थी लेकिन जब सरकार ने उस आपदा के बाद ही कोई खास कदम नहीं उठाया तो इसके बाद सरकार कोई सकारात्मक कदम उठाएगी ऐसी मुझे आशा नहीं है. बहुत जरूरी है कि जब तक समाज एकजुट होकर सरकार के ऊपर दवाब नहीं डालेगा, जब तक कोर्ट पर्यावरण (Environment) का संज्ञान नहीं लेंगे तब तक कठिन है कि सरकार अपने बल पर कुछ कर दे.
ये भी पढ़ें
चमोली के ऊंचाई वाले इलाकों में मिलती है सबसे कीमती कीड़ा जड़ी, इसके लिए ग्लेशियरों को खोद डालते हैं लोग
[ad_2]
Source link